माँ


भाग – 1

माँ एक ऐसा शब्द है जिसमें संसार की सारी शक्तियाँ समाहित हैं। आम तौर पर ऐसा कहा जाता है। अगर कहा जाता है तो ज़रूर इसके अपने कारण होंगे। अपनी सुदूर गाँवों की यात्रा में माँओं से सहज ही मेरा लगाव होता गया । उनके सुख-दुख सब अपने होते गये । सच कहें तो अपने-पराये का अलग सा बोध ही नहीं रहा । उनके दुख, उनकी तकलीफ़ों को ख़ुद उनकी ज़ुबानी सुन बड़ी विनम्रता और साहस से भरा मन यही कहता -‘एक दिन मैं, हम सब मिलकर एक ऐसी दुनिया बनायेंगे जहाँ हमारी माएँ कभी इतनी असहाय और दुखी ना होंगी , वह भी खुले मन के साथ अपना जीवन सम्मान पूर्वक जियेंगी, अपने भीतर अनंत संभावनाओं को खोलती आनंद के साथ अपने मन के रचनात्मक कार्य करेंगी ’।

इस अभीप्सा, इस प्रार्थना और इस सपने को और भी मज़बूत करती गईं जीवन यात्रा से जुड़ती अनगिनत माँओं की जीवन गाथा । गाथा जो अपने में अनगिनत कहानियों के तार बुनती हैं, इन तारों के ताने बाने कुछ और नहीं, मानवता को नई ऊँचाई देने वाले वह गुण थे, जिनके सहारे पूर्ण उत्साह से एक युवती विवाह उपरांत अपना जीवन शुरू करती है, माँ बनती है और रचती है अपने इर्द-गिर्द एक विराट संसार। आज एक कथावाचक की तरह ऐसी ही दो माँ की कहानी वाचने जा रही। संक्षिप्त मगर सारगर्भित और प्रेरणादायी।

प्रतिमा एक सहज युवती थी। बेहद सहज। खूब खुलकर हंसती। नाचती। गाती। ख़ुद ही शब्दों को जोड़-जोड़ कर गीत रचती और ख़ुद ही उसकी धुन भी तैयार कर लेती। उसे गुनगुनाती, गाती। उसे परवाह नहीं थी कि काव्य की दृष्टि से उसके शब्दों का संयोजन उचित हुआ या नहीं, सुर ठीक लग रहे या नहीं। वह उन्मुक्त थी, उस पंछी की भाँति जिसे अभी सारा आकाश नापना था। जिस पंछी में साहस और उन्मुक्तता ना हो वह आकाश की विशालता को नाप कभी नहीं सकता। पंछी जिसके भीतर घमंड हो कि वह उड़ कर आकाश को माप आएगा , वह भी कभी आकाश की विशालता के दर्शन नहीं कर सकता है। पृथ्वी की गहराई जानने के लिए उतना ही गहरा हृदय होना होता है और आकाश की विशालता से दोस्ती उसकी हो सकती है जिसका हृदय उतना ही विशाल हो। प्रतिमा ऐसी ही थीं। उनके हृदय की गहराई और विशालता इतनी सहज रूपों में प्रकट होती रही, तब भी जब उनसे कोई गलती होती। बड़े ही सहज ढंग से वह ऐसे अपनी गलती स्वीकार और सुधार लेतीं, जैसे आकाश अपने कैनवास पर रंगों का खेल रचता है और जब कोई रंग गलती से फैलता नज़र आता तो वह तुरंत कैनवास सफ़ेद कर उसपर नये रंग बिखेर देता है। ऐसी ही प्रतिमा जब विवाह कर बिष्णुविंधा गाँव पहुँचती है तो उसे प्रतिमा से मीरा बना दिया जाता है। मगर भला नाम बदलने से क्या गुण और व्यक्तित्व बदल जाता है! नहीं! प्रतिमा की सहजता, उसके हृदय की विशालता उसके मन की गहराई अपने इर्द गिर्द और बड़ा विशाल संसार रचती गई। वह इसलिए कि उसने ‘मीरा’ नाम के गुण को अपने संपूर्ण व्यक्तित्व और आत्मा से एकीकृत करना शुरू कर दिया विवाह उपरांत। और यह कोई सोचा-समझा प्रयास नहीं था। सहज ही घटने वाली घटना थी।


आम तौर पर भारतीय युवतियों के साथ जो विवाह उपरांत होता है वह प्रतिमा के साथ भी हुआ। वह इससे अछूती ना रही। पहले उसका नाम बदला गया। मीरा नाम उन्हें उनके पति द्वारा मिला, उनके पति की आद्यात्मिक गुरु श्री अरविंद और द मदर के प्रभाव से। मदर का नाम मीरा अल्फ़ासा था और उसी से उनके पति ने उन्हें नाम मीरा दिया। उनके पति श्री अरविंद और इन्हीं मीरा के अनुयायी थे और उनके ही ‘संपूर्ण शिक्षा’ के दर्शन पर आधारित एक स्कूल चला रहे थे।

मीरा के ऊपर संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारी के साथ साथ आवासीय विद्यालय के बच्चों की भी ज़िम्मेदारी थी। मीरा यानी प्रतिमा समस्त ज़िम्मेदारियों को खेलते खेलते सम्भालती गईं। जैसे यह दिन-रात का श्रम उनके आनंद से उपजा हो, जिसमें शरीर की थकान तो ज़रूर थी मगर मन का आनंद था। विद्यालय में बच्चें उनके हृदय में बसते गए और वह अपने बच्चों के हृदय में। इस तरह प्रतिमा, पहले मीरा बनी, फिर अपने विद्यालय और बाद में सबकी प्यारी मीरा अप्पा बन गईं। वह हर आने वाले बच्चे का हर तरह से विकास कैसे हो इस पर दिन रात काम करतीं, नये नये तरीक़े ईजाद करतीं। कई तरह की किताबें पढ़तीं। बच्चे उन्हें मेरा अप्पा बुलाते। इन्हीं वर्षों में उन्हें स्वयं की दो संतान हुईं – बड़ी बेटी सुमित्रा और छोटा बेटा विश्वभूषण।

सुमित्रा और विश्वभूषण ऐसे पले जैसे विद्यालय के अन्य बच्चे। विद्यालय के अन्य बच्चों से कम ही उन्हें तर्ज़ी मिली। एक तरह से इन दो बच्चों को पैदा कर मीरा अप्पा ने परिवार वालों के हवाले कर दिया। बच्चे बस पल गये। जब विद्यालय जाने लायक हुए तो उसी विद्यालय में जाने लगे। मगर उन्हें कभी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।

विद्यालय और उनके दाम्पत्य का जीवन इतना भी सरल नहीं था। तनाव और कड़वाहट। कई क़िस्म के आक्रमण। उनके जीवन गाथा को अगर लिखा जाए तो वह अनेक खंडों में लिखा जाएगा। क्योंकि सिर्फ़ उनकी आपबीती, उससे जुड़ी घटना ही नहीं होगी, उनके शैक्षणिक प्रयोग, उनसे जुड़ी घटनाएँ, उन शैक्षणिक प्रयोगों से जुड़ा संघर्ष, उनके ख़ुद की लिखी डायरी, अनुवाद, प्रार्थनाएँ, बच्चों से जुड़ी नित नयी समस्याओं के समाधान… और भी बहुत कुछ …मीरा अप्पा के आकाश में अनंत रंग घुले मिले हैं, मीरा अप्पा के आकाश की चित्रकारी उनके पढ़ाये, उनके सानिध्य में बड़े हुए बच्चों को देख कर मालूम होता है ।

सुमित्रा और विश्वभूषण अपनी माँ के प्यार और सानिध्य से वंचित रहे, हालाँकि वे एक जगह ही रहते थे, एक दूसरे को देख सकते थे। बच्चे अपनी माँ को दूसरे बच्चों को देखते, सँभालते, उनका ख़याल रखते दिन-रात देखा करते थे । जैसे-जैसे बड़े होते गए, उनके मन में एक कसक सी पैदा होती गई। माँ पास होकर भी माँ पास नहीं। ऐसा नहीं कि सुमित्रा और विश्वभूषण को माँ जैसा प्रेम नहीं मिला, उन्हें भी मिला मगर किसी दूसरे से, ठीक उसी तरह जैसे मीरा विद्यालय के बच्चों को दे रहीं थीं। मीरा के भीतर यह एहसास ही नहीं था कि उनके सिर्फ़ दो बच्चे हैं, शायद उन्हें यह एहसास था ही नहीं कि दुनिया के सभी बच्चों के साथ उनके हाड़ -मांस से पैदा हुए उनके दो बच्चे और भी हैं। दुनिया भर के बच्चों की वह प्रिय थीं, बहुत प्रिय, माँ से बढ़कर (ऐसा विद्यालय के बच्चे कहते थे), उनकी सहेली, उनकी मार्गदर्शिका, और ना जाने क्या क्या।

मगर इस कहानी का एक दिलचस्प और जगा देने वाला मोड़ भी है। मीरा अप्पा के गर्भ से जन्में उनके यही दो बच्चे, सुमित्रा और विश्वभूषण अपने कैरियर को छोड़ आवासीय विद्यालय को एक संपूर्ण रूप से प्रयोगात्मक विद्यालय बनाने में मीरा अप्पा यानी अपनी माँ का सहयोग करने पहुँच जाते हैं अपने गाँव विष्णुविंधा, जहां उनकी माँ अकेले अपने दम पर वर्तमान दुनिया के सर्वोत्तम शैक्षणिक प्रयोग कर रहीं थीं। सुमित्रा और विश्वभूषण ने माँ के कार्य को सम्मान पूर्वक देखा, समझा। बचपन में अपनी माँ के प्यार से वंचित बच्चों ने मन में बैठी उस बात को सहज लिया, कड़वाहट में बदल कर प्रतिरोध कर अपनी माँ को अकेला नहीं छोड़। और उस वक़्त जो बच्चों का साथ मिला वह मीरा अप्पा के साथ अंत तक बना रहा, तब भी जिस विद्यालय को रचने, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रयोगात्मक विद्यालय बनाने में संपूर्ण जीवन होम कर देने के बावजूद उन्हीं के पति और विद्यालय के कुछ शिक्षकों और ट्रस्ट के दो-एक ट्रस्टी के द्वारा उन्हें और उनके दोनों बच्चे और नवविवाहिता बहू मनस्वनी को हमेशा के लिए वहाँ से निकाल दिया गया ।

हम इस पीड़ा की कल्पना भी नहीं कर सकें शायद। ना कोई बैंक बैलेंस, ना घर, ना ठिकाना, ना कोई नौकरी । वैसे में अचानक से सिर्फ़ इसलिए निकाल दिया जाना क्योंकि बच्चों के हक़ में किए गई शैक्षणिक प्रयोग और मीरा अप्पा को मिलने वाले प्रेम और प्रसिद्धि देखी नहीं जाती कुछ शिक्षकों को और कान के कच्चे उनके पति को। दोनों बच्चे माँ का सहारा बने। यह भी एक लंबी कथा है।

मीरा अप्पा एक ऐसी माँ थीं दुनिया के सभी बच्चों की जिसने अपने बच्चों की देख-रेख, उसकी शारीरिक, भावनात्मक, उसके मनोविज्ञान, उसकी आत्मिक विकास के लिए पुराने तरीक़ों का उपयोग नहीं किया, नये तरीक़े ईजाद किए। मीरा अप्पा के सानिध्य में पला हर बच्चा चित्रकार था, कवि था, लेखक था, वैज्ञानिक था। हर बच्चे में स्वयं को देख पाने, स्वयं का बेबाक़ विश्लेषण करने की क्षमता थी। बच्चे का मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक एवं आत्मिक चरित्र ऐसे गढ़ती थीं वो कि बच्चों में सत्य को देखने, समझने और परखने का सामर्थ्य पैदा होता था। अभूतपूर्व माँ थीं वो, बच्चों की गलती पर ऐसे बेचैन होतीं की मैडिटेशन में कई बार मैंने उन्हें रोते हुए पाया। और पूछने पर कि आप क्यों रो रहीं थीं, तो वह बतातीं कि फ़लाँ बच्चा इस समस्या से जूझ रहा है, सारे उपाय कर के देख लिए , माँ ही कोई रास्ता दिखायेंगी, इसी के लिए प्रार्थना कर रही थी। मगर तुरंत ही वह हंसने लगती और कहतीं देखिए आपसे बात करते करते माँ ने बता दिया कि कैसे उस बच्चे की समस्या दूर होगी। एक माँ के अलावा कौन दूसरा इतना गहरे उतर कर अपने बच्चे को सम्भालता है। किसी एक बच्चे के लिए नहीं, हर बच्चे के लिए वह वास्तव में एक माँ से भी बढ़कर थीं, जैसा की उनके सानिध्य में पले, बढ़े और पढ़े बच्चों का मानना है।
सलाम मीरा अप्पा जैसी माँ को !!!

Shephali is an independent researcher, writer and educationist.

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