भाग – II
मैं उसे नहीं जानती
फिर भी ऐसा है
कि मैं उसे ही जानती
किसी और को नहीं जानती
एक नन्हीं बच्ची या बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके लिए ऐसा ही होता होगा। वह सिर्फ़ माँ की गोद, सिर्फ़ माँ को पहचानता है। पहचान की शुरुआत पहले पहल शुरू होती है माँ से। या यूँ कहें ममत्व से। और इसका माध्यम बनता है स्पर्श। यह स्पर्श जन्म से मृत्यु तक हमारे साथ होता है। माँ और बच्चे का रिश्ता स्पर्शों का खेल सा होता है। माँ का स्पर्श बता देता है कि कब उसका हृदय वात्सल्य प्रेम से उमर रहा, कब वह नाराज़ है, कब वह दुखी है… यह स्पर्श सिर्फ़ हाथों और उँगलियों का नहीं होता। माँ स्पर्श करती है आँखों से, उँगलियों से… माँ स्पर्श करती है अपने द्वारा बनाये गये भोजन से, माँ का स्पर्श उसकी देह से आने वाली सुगंध है, उसकी आँखों से गिरने वाला नीर है। उसकी खिलखिलाहट है। उसकी मुस्कुराहट है। उसके चेहरे का नूर है। अनगिनत तरीक़ों से माँ स्पर्श करती है।
आज की दूसरी कहानी इन्हीं स्पर्शों की वह साहसिक यात्रा है जो कई माँओं के संघर्ष की कथा समेटे है। यह कहानी है सामाजिक कुरूतियों से लड़ने की, समाज में एकत्व स्थापित करने की।

मनोरमा बेहद कम उम्र में ब्याह कर आईं। डॉक्टर बनना चाहती थीं। लेकिन पारंपरिक संकीर्ण मानसिक सोच वाली सास ने अपनी बहू को आगे पढ़ने की इजाज़त नहीं दी। कुछ करने, डॉक्टर बनने का सपना सपना बन कर रह गया। पिता ने ब्याह करते वक़्त सोचा था पढ़े-लिखे लोगों का परिवार है, प्रगतिशील लोग हैं, ज़रूर बिटिया को आगे पढ़ने देंगे। अच्छा वर मिल रहा,शादी कर दी। यह पूछना ज़रूरी नहीं समझा कि बेटी को आगे पढ़ने देंगे या नहीं। मनोरमा दसवीं में पढ़ रही थी तब। मनोरमा की माँ छटपटा कर रह गई। मगर कुछ कर ना सकी। पति प्रगतिशील थे, लेकिन माँ को राज़ी ना कर सके, अपनी पत्नी को डॉक्टर बनाने के लिए। तब डॉक्टर बनाना इतना मुश्किल न था, कोई प्रवेश परीक्षा नहीं हुआ करती थी। बात 1970 की है। कुछ सालों बाद पति ने मनोरमा की पढ़ाई को जारी रखने का सोचा। मगर तब तक बच्चे हो चुके थे। फिर भी मनोरमा को यह सुझाव पसंद आया। मनोरमा ने इंटरमीडिएट किया, बी. ए. किया, एम. ए. किया। और इस प्रक्रिया में बच्चे बड़े होते गए। पाँच बच्चों की ज़िम्मेदारी निभाते हुए मनोरमा ने एम. ए कर लिया। और पति की प्रेरणा से पी. एच. डी. भी कर ली। शायद पति ने स्वयं को इस अपराध बोध से थोड़ा हल्का महसूस किया कि असल का डॉक्टर तो नहीं बना पाया, कम से कम नाम के आगे डॉक्टर तो लग गया। मनोरमा ने कभी अपने नाम के आगे डॉक्टर नहीं लगाया। और लगाती भी तो कहाँ, उसे नौकरी करने के अवसर से सदैव वंचित रखा गया। मगर वह प्रतिभा की धनी थी। जहां भी पति के साथ किसी कार्यक्रम या सेमिनार में जातीं, अपनी संयत और समझदार प्रतिक्रियों से लोगों का दिल मोह लेतीं।

मनोरमा को पाँच बच्चे हैं। चार बेटियाँ और एक बेटा । बच्चों की अपनी जीवन यात्रा होती है। उसमें मनोरमा की भूमिका किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थी। सबसे पहले, बेटे को अच्छी शिक्षा देने के लिए उसने अपनी सोने की चूड़ियाँ गिरवीं रखीं। यह कोई नई बात नहीं, अक्सर ऐसा होता है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर गहने और ज़मीन गिरवी रखी ही जाती रही है, यह भी हमारे समाज के चलन का एक हिस्सा है। वह चूड़ियाँ कभी वापस नहीं मिलीं उसे। बेटे को तो सभी पढाना चाहते हैं। बड़ी बिटिया कॉलेज गई। दिल्ली जाना चाहती थी आगे की पढ़ाई करने के लिए । पति के बड़े भाई, नाते-रिश्तेदार और दोस्त सभी ने एक सिरे से इसे नकार दिया और पति के जम कर कान भरे। मगर बेहद शालीन दिखने वाली मनोरमा भी अड़ गई कि वह किसी भी क़ीमत पर बेटी को पढ़ने के लिए बाहर ज़रूर भेजेगी। और अंततः बहस लड़ाई के बाद अकेली पड़ने के बावजूद मनोरमा की जीत हुई। साल था 1995. इसे इतना भी सरल ना समझें। जिस साल की यहाँ बात हो रही उस जमाने में बिहार के एक छोटे से शहर में बेटी को पढ़ने के लिए बाहर भेजना बहुत दूर की बात थी। दिल्ली दूर है के मुहावरे को दिल्ली नज़दीक है का मुहावरा चलाया मनोरमा ने। यह कदम एक बेटी, एक व्यक्ति,एक परिवार के लिए नहीं बड़ा था। बल्कि आगे चल कर इसका फ़ायदा गली मोहल्ले, जान पहचान की बेटियों तक को ही नहीं मिला,बल्कि पूरे शहर की बेटी को बाहर जा कर पढ़ने का एक उदाहरण मिला। मनोरमा के पति और उसके बच्चे शायद इस रूप में अपनी पत्नी, माँ के इस सामाजिक योगदान को कभी ना देखा होगा। मगर अब भी कई बेटियाँ उनकी शुक्रगुज़ार हैं कि रास्ता खुला। हालाँकि सभी इसके लिए उनके प्रगतिशील पति को ही सम्मान देते हैं। मगर असल में बेटियों की यह लड़ाई किसी पुरुष के बस की थी नहीं, यह कोई माँ ही कर सकती थी उस जमाने में जहां शादी शुदा महिला भी घर में काम के लिए आने वाले किसी मज़दूर से दो बात मुस्कुरा कर कर ले, काम बताते हुए तो हंगामा खड़ा हो जाया करता था। बाहर जा कर पढ़ने वाली बच्चियों को बच्चलन कह कर उसके बारे में गंदी-गंदी बातें फैलाईं जाती थीं। उसका चरित्रहणन किया जाता था।

मनोरमा ने अपने बच्चों के बहाने इस छोटे सी जगह में कई उदाहरण पेश किए बदलाव के। मनोरमा लड़ी अपने परिवार में अन्तर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाह के लिए। वह चाहती तो समाज में चली आ रही सभी ग़लत प्रथा को चुपचाप स्वीकार कर लेती मगर उसने ऐसा नहीं किया। बेहद सहज ही वह खड़ी रही अपने बच्चों के साथ, बिना अपने बच्चों को यह एहसास दिलाये कि उनकी ख़ुशी के लिए वह किस हद तक लड़ सकती है। माएँ विजेता होती हैं। उन्हें कोई हरा नहीं सकता। कोई भी नहीं, जब तक कि वह स्वयं हारना ना चाहें। अक्सर माँ को महिमा मंडित तो किया जाता है, मगर दूसरी ओर यह भी सच है कि हर बुरे का ज़िम्मेदार भी उसे ही माना जाता है। शायद ही किसी माँ को उसके हक़ का सम्मान और प्यार मिल पाता है।

मनोरमा चाहे वह गुड़ियों -गुड्डों की शादी हो, खेल -खिलौने की बात हो या फिर किसी तरह का सामाजिक काम , बच्चों के द्वारा या फिर उनके पति के द्वारा, वह सभी कामों में बढ़ चढ़ कर व्यवस्था करतीं, सहयोग करतीं, रुपये पैसे कम पड़ जाते तो उसकी भी व्यवस्था चुपचाप कर देतीं,मगर सदैव पर्दे के पीछे, कभी वह सामने नहीं आती। सारा श्रेय जाता उनके पति को और उनके बच्चे को। पति के साथ हर सामाजिक राजनीतिक लड़ाई में वह ढाल बनकर रहीं हैं। यहाँ तक की उनके पति पर दो-दो बार जानलेवा हमला हुए, उन सब में वह अकेले अपने पति और बच्चों को सम्भालीं। और आज भी वह अपनी बिटिया के साथ सामाजिक कार्यों में लगी हैं। जिस वक़्त यह लिखा जा रहा, उस वक़्त पूरे जोश के साथ वह ध्यान द्वारा चेतना परिवर्तन के लिए बुद्ध पूर्णिमा पर होने वाले आयोजित सात दिन की साधना और ध्यान की तैयारी में जुटीं हैं।
किसी भी समाज में बदलाव यूँ ही नहीं आता। उस बदलाव के पीछे असंख्य माँओं की भूमिका होती है। मगर उनका ज़िक्र और नाम शायद ही कहीं मिलता है।मुनव्वर राना की माँ पर लिखी शायरी शायद बयां कर पाये एक बच्चे के लिए माँ का होना
चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
